GURU HAR KRISHNA JI

 

गुरु हरकृष्ण जी – करुणा, सेवा और मासूम शहादत के प्रतीक 

गुरु हरकृष्ण साहिब जी सिख धर्म के आठवें गुरु थे। वे सबसे कम उम्र में गुरु बनने वाले और सबसे कम आयु में देह त्याग करने वाले सिख गुरु हैं। उनका जन्म 7 जुलाई 1656 को किरातपुर साहिब (पंजाब) में हुआ था। उनके पिता गुरु हर राय जी और माता माता कृष्णा कौर जी थीं। गुरु हर राय जी ने अपने बड़े बेटे राम राय के बजाय छोटे बेटे हरकृष्ण जी को गुरु गद्दी सौंपी, क्योंकि राम राय ने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब के दरबार में गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी में परिवर्तन कर दिया था।

गुरु हरकृष्ण जी मात्र 5 वर्ष की आयु में, 20 अक्टूबर 1661 को गुरु बने। इतनी कम उम्र में गुरु बनना कोई साधारण बात नहीं थी, लेकिन उन्होंने अपने आचरण, सेवा भावना और दयालुता से सिद्ध कर दिया कि उम्र का ज्ञान और करुणा से कोई संबंध नहीं है।

करुणा और सेवा की मूर्ति

गुरु हरकृष्ण जी का जीवन करुणा और सेवा का प्रतीक था। जब उन्हें गुरु गद्दी प्राप्त हुई, उस समय देश में मुग़ल शासन था और समाज में अनेक प्रकार की असमानताएँ, बीमारियाँ और दुख व्याप्त थे। गुरु जी ने लोगों को प्रेम, सेवा और सच्चाई का मार्ग दिखाया। उन्होंने सभी के साथ समान व्यवहार किया और निर्धनों, रोगियों तथा दुखियों की निःस्वार्थ सेवा की।

चेचक महामारी और बलिदान

1664 में दिल्ली में भयंकर चेचक और हैजे की महामारी फैली हुई थी। औरंगज़ेब ने गुरु हरकृष्ण जी को दिल्ली बुलाया था, संभवतः यह जानने के लिए कि इतने छोटे बालक में ऐसा क्या विशेष है कि लोग उन्हें गुरु मानते हैं। गुरु जी ने अपने अनुयायियों के साथ दिल्ली की यात्रा की और वहाँ के रकाबगंज क्षेत्र में ठहरे।

दिल्ली में हजारों लोग चेचक से पीड़ित थे। गुरु हरकृष्ण जी ने बीमारों की सेवा शुरू की। उन्होंने अपनी उम्र और स्वास्थ्य की परवाह किए बिना लोगों की सेवा की, उन्हें जल पिलाया, दवाएँ दीं, और उन्हें सांत्वना दी। उनकी उपस्थिति मात्र से लोग स्वस्थ होने लगे। लोगों ने उन्हें "बाल गुरु" और "बाला पीर" के रूप में सम्मानित किया।

परंतु इसी सेवा कार्य के दौरान गुरु हरकृष्ण जी स्वयं चेचक की चपेट में आ गए। अत्यधिक पीड़ा के बावजूद उन्होंने कोई शिकायत नहीं की और अंत तक परमात्मा का नाम जपते रहे। अंततः 30 मार्च 1664 को, मात्र 7 वर्ष की आयु में, उन्होंने शरीर त्याग दिया।

अंतिम शब्द और उत्तराधिकार

गुरु हरकृष्ण जी के अंतिम शब्द थे – "बाबा बकाले", जिसका अर्थ था कि अगला गुरु बकाला नामक स्थान पर मिलेगा। इन्हीं शब्दों के आधार पर आगे चलकर गुरु तेग बहादुर जी को नौवां गुरु नियुक्त किया गया।


गुरु हरकृष्ण साहिब जी का जीवन यह सिखाता है कि सेवा और सहानुभूति की कोई उम्र नहीं होती। उन्होंने बाल्यावस्था में ही सिख धर्म के मूल सिद्धांत – सेवा, सहनशीलता और करुणा – को अपने जीवन में पूर्ण रूप से निभाया।

उनका संदेश था – “दुखियों की सेवा ही सच्चा धर्म है।”

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