LOHIT RIVER ARUNACHAL PRADESH

 

लोहित नदी 

लोहित नदी पूर्वोत्तर भारत की एक प्रमुख और पवित्र नदी है, जो ब्रह्मपुत्र नदी की एक प्रमुख सहायक नदी के रूप में जानी जाती है। यह नदी अरुणाचल प्रदेश और असम राज्यों से होकर बहती है और ब्रह्मपुत्र में मिल जाती है। लोहित नदी को उसके सुंदर, शांत और पवित्र स्वरूप के लिए जाना जाता है। यह नदी सांस्कृतिक, धार्मिक और पारिस्थितिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।

उद्गम स्थल

लोहित नदी का उद्गम चीन के तिब्बत क्षेत्र में स्थित जंगबो ग्लेशियर से होता है। चीन में इसे "जोरो" या "जांगबो" नाम से जाना जाता है। यह नदी हिमालय की पूर्वी पहाड़ियों से निकलकर अरुणाचल प्रदेश के अंजाव ज़िले में प्रवेश करती है, और फिर असम होते हुए ब्रह्मपुत्र नदी में विलीन हो जाती है। लोहित का शाब्दिक अर्थ है – “लाल रंग की नदी”, जो इसके पानी में पाए जाने वाले खनिजों की वजह से होता है।

नदी का मार्ग

अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश के बाद यह नदी तेज़ धाराओं और घाटियों से होकर बहती है। इसका मार्ग अत्यंत खूबसूरत और हरा-भरा है, जिसमें पहाड़, घने जंगल और छोटी-छोटी जनजातियाँ बसी हुई हैं। दिबांग और नूजोंग जैसी सहायक नदियाँ इसमें मिलती हैं। यह नदी अंजाव, लोहित और तिनसुकिया ज़िलों से होकर बहती है और अंत में असम के सादिया क्षेत्र में ब्रह्मपुत्र नदी में समाहित हो जाती है।

धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व

लोहित नदी हिंदू धर्म में अत्यंत पवित्र मानी जाती है। विशेष रूप से परशुराम कुंड नामक तीर्थस्थल, जो अरुणाचल प्रदेश में लोहित नदी के किनारे स्थित है, बहुत प्रसिद्ध है। हर साल मकर संक्रांति के अवसर पर हजारों श्रद्धालु यहाँ स्नान करने आते हैं। यह स्थान भगवान परशुराम से जुड़ा हुआ है, जहाँ उन्होंने अपने पापों से मुक्ति पाने के लिए स्नान किया था।

पारिस्थितिक और आर्थिक महत्व

लोहित नदी क्षेत्र की जैव विविधता के लिए भी महत्वपूर्ण है। इसके किनारे कई प्रकार के वनस्पति और जीव पाए जाते हैं। यह नदी क्षेत्र के किसानों के लिए सिंचाई का प्रमुख स्रोत है। साथ ही, इसकी तेज धाराएँ हाइड्रोपावर परियोजनाओं के लिए भी उपयोगी मानी जाती हैं। हालांकि, जल विद्युत परियोजनाओं के कारण पारिस्थितिक असंतुलन और जनजातीय क्षेत्रों में विस्थापन जैसे मुद्दे भी उठे हैं।

निष्कर्ष

लोहित नदी केवल एक जल स्रोत नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक, धार्मिक और पारिस्थितिक धरोहर है। यह पूर्वोत्तर भारत की जीवनरेखा कही जा सकती है, जो ना केवल लोगों की आस्था से जुड़ी है बल्कि आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से भी अत्यंत मूल्यवान है। इसके संरक्षण और सतत उपयोग की दिशा में प्रयास करना आवश्यक है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इसकी गरिमा और लाभों का अनुभव कर सकें।

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