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INDRAPRASTHA

  इंद्रप्रस्थ  इंद्रप्रस्थ प्राचीन भारत का एक महत्वपूर्ण नगर था, जिसे महाभारत के अनुसार पांडवों की राजधानी के रूप में स्थापित किया गया था। यह नगर आज के दिल्ली क्षेत्र में स्थित माना जाता है। इंद्रप्रस्थ का अर्थ है “इंद्र का स्थान” या “इंद्र का नगर”। इसे पांडवों ने हस्तिनापुर से निष्कासित होने के बाद बसाया था और इसे अत्यंत भव्य और मजबूत नगर बनाया गया। महाभारत के अनुसार, इंद्रप्रस्थ का निर्माण महान वास्तुकार और विद्वान श्रेष्ठकारी विदुर और अर्जुन के सहयोग से हुआ। नगर की योजना ऐसी बनाई गई थी कि यह सुरक्षा, सुव्यवस्था और सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक बने। पांडवों ने यहां अपने राज्य की राजधानी बसाई और धर्म, न्याय और समृद्धि का शासन स्थापित किया। इंद्रप्रस्थ का सबसे प्रसिद्ध स्थल महल और राजसभा थी, जहाँ युधिष्ठिर ने राज्य संचालन और न्यायिक कार्य किया। इस नगर में अनेक उद्यान, सरोवर, बाजार और धार्मिक स्थल थे। महाभारत के अनुसार, द्रौपदी का स्वयंवर भी इंद्रप्रस्थ में ही आयोजित हुआ था। यहाँ की भव्यता और सौंदर्य का वर्णन ग्रंथों में विस्तार से किया गया है। इंद्रप्रस्थ का धार्मिक और सांस...

HASTINAPUR

  हस्तिनापुर  हस्तिनापुर भारत के प्राचीन इतिहास और महाभारत काल का अत्यंत प्रसिद्ध नगर है। यह नगर कुरु वंश की राजधानी था और इसे भारतीय सभ्यता का एक महत्वपूर्ण केंद्र माना जाता है। वर्तमान में हस्तिनापुर उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में स्थित है। इसका नाम “हस्ती” शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है — “हाथियों का नगर”। कहा जाता है कि इसे राजा हस्तिन ने बसाया था, इसलिए इसका नाम हस्तिनापुर पड़ा। महाभारत के अनुसार, हस्तिनापुर में राजा शांतनु, भीष्म पितामह, धृतराष्ट्र, पांडु और दुर्योधन जैसे महान पात्रों ने शासन किया। यही वह भूमि थी जहाँ से कुरु वंश की गौरवशाली परंपरा की शुरुआत हुई। पांडव और कौरव दोनों का पालन-पोषण यहीं हुआ, और यहीं से महाभारत युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुई। हस्तिनापुर केवल एक राजनीतिक राजधानी नहीं, बल्कि धर्म, संस्कृति और शिक्षा का भी प्रमुख केंद्र था। यहाँ अनेक महर्षियों के आश्रम थे जहाँ वेद, उपनिषद और धर्मशास्त्रों की शिक्षा दी जाती थी। कहा जाता है कि युधिष्ठिर के शासनकाल में हस्तिनापुर स्वर्ग के समान समृद्ध था। आज भी हस्तिनापुर धार्मिक दृष्टि से अत्यंत पवित्र माना...

GOTRA

  गोत्र  गोत्र हिंदू समाज की एक प्राचीन और महत्वपूर्ण सामाजिक-धार्मिक परंपरा है। संस्कृत में “गोत्र” शब्द का अर्थ होता है – “गायों का समूह” या “वंश परंपरा”। व्यवहारिक रूप में, गोत्र व्यक्ति के कुल, वंश या पूर्वज ऋषि से संबंध को दर्शाता है। हर व्यक्ति का गोत्र उसके पूर्वज ऋषि से जुड़ा होता है, जो उस वंश का मूल प्रवर्तक माना जाता है। हिंदू धर्म में माना जाता है कि मानव जाति की उत्पत्ति सप्त ऋषियों – गौतम, कश्यप, भारद्वाज, वशिष्ठ, अत्रि, विश्वामित्र और जमदग्नि – से हुई। इन्हीं ऋषियों के वंशजों ने अलग-अलग गोत्रों का निर्माण किया। इसलिए हर गोत्र किसी न किसी ऋषि के नाम से जुड़ा हुआ है, जैसे — कश्यप गोत्र, वशिष्ठ गोत्र, भारद्वाज गोत्र, गौतम गोत्र आदि। गोत्र का सबसे प्रमुख उद्देश्य यह था कि समाज में रक्त-संबंधों की पवित्रता बनी रहे। इसी कारण हिंदू धर्म में समान गोत्र में विवाह करना वर्जित माना गया है, क्योंकि समान गोत्र के लोग एक ही पूर्वज के वंशज माने जाते हैं। इसे “सगोत्र विवाह” कहा जाता है, जो धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से अनुचित माना गया है। गोत्र केवल व्यक्ति की पहचान ही नहीं,...

MAHARSHI DURVASA

  महर्षि दुर्वासा  महर्षि दुर्वासा हिंदू धर्म के प्रसिद्ध और तेजस्वी ऋषि थे, जो अपने कठोर स्वभाव और क्रोध के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। वे महर्षि अत्रि और माता अनुसूया के पुत्र थे। दुर्वासा का नाम संस्कृत के शब्द “दुर्वास” से बना है, जिसका अर्थ होता है — “जिसके साथ रहना कठिन हो,” और यह उनके तीव्र स्वभाव का प्रतीक है। महर्षि दुर्वासा का व्यक्तित्व अत्यंत अद्भुत था। वे गहन तपस्वी और शक्तिशाली ऋषि थे, जिनके श्राप और वरदान दोनों का प्रभाव असीम माना जाता था। कहा जाता है कि वे छोटे से अपमान पर भी क्रोधित हो जाते थे, किंतु उनका क्रोध सदैव धर्म की स्थापना और दूसरों को सबक सिखाने के लिए होता था। महर्षि दुर्वासा से जुड़ी कई प्रसिद्ध कथाएँ पुराणों में मिलती हैं। एक कथा के अनुसार, उनके श्राप के कारण भगवान इंद्र का वैभव नष्ट हुआ और समुद्र मंथन की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। एक अन्य कथा में, उन्होंने द्रौपदी को आशीर्वाद दिया था कि उनके बर्तन में जब तक अन्न रहेगा, कोई अतिथि भूखा नहीं जाएगा। इसी वरदान ने पांडवों को कठिन परिस्थितियों में बचाया। दुर्वासा ऋषि केवल क्रोधी ही नहीं, बल्कि अत्य...

MAHARSHI PARASHAR

  महर्षि पराशर  महर्षि पराशर हिंदू धर्म के महान ऋषियों में से एक थे। वे प्राचीन वैदिक काल के विख्यात तपस्वी, विद्वान और वेदों के ज्ञाता थे। महर्षि पराशर को विशेष रूप से वेदव्यास के पिता के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने आगे चलकर महाभारत की रचना की। पराशर ऋषि का जीवन ज्ञान, तपस्या और करुणा का प्रतीक माना जाता है। महर्षि पराशर का जन्म महर्षि शक्ता के पुत्र के रूप में हुआ था। कहा जाता है कि उनके पिता की मृत्यु दानवों के हाथों हुई थी, जिसके कारण उन्होंने प्रतिशोध की भावना से यज्ञ द्वारा सभी राक्षसों का संहार करने का निश्चय किया। तब महर्षि पुलस्त्य ने उन्हें समझाया कि क्रोध से धर्म की हानि होती है। इसके बाद उन्होंने क्षमा और दया को अपनाया और अपना जीवन ज्ञान के प्रसार में समर्पित कर दिया। महर्षि पराशर ने अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें पराशर स्मृति और विष्णु पुराण अत्यंत प्रसिद्ध हैं। विष्णु पुराण में उन्होंने सृष्टि, धर्म, कर्म और भगवान विष्णु की महिमा का अत्यंत सुंदर वर्णन किया है। उनकी शिक्षाएँ वेदांत और आचार दर्शन पर आधारित थीं। महर्षि पराशर ने सत्यवती से विवाह किया, और...

MAHARSHI VYAS

  महर्षि व्यास  महर्षि व्यास हिंदू धर्म के महान ऋषि, ग्रंथकार और वेदों के विभाजक माने जाते हैं। उनका पूरा नाम कृष्ण द्वैपायन व्यास था, क्योंकि उनका जन्म यमुना नदी के द्वीप पर हुआ था और उनका वर्ण श्याम था। वे महर्षि पराशर और सत्यवती के पुत्र थे। महर्षि व्यास को वेदव्यास के नाम से भी जाना जाता है। महर्षि व्यास का भारतीय संस्कृति और साहित्य में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने चारों वेदों—ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद—को अलग-अलग वर्गों में विभाजित किया, ताकि उनका अध्ययन और संरक्षण सरल हो सके। इसी कारण उन्हें “वेदव्यास” कहा गया। उन्होंने महाभारत जैसे विशाल ग्रंथ की रचना की, जो विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य माना जाता है। महाभारत केवल युद्ध की कथा नहीं, बल्कि जीवन, धर्म, नीति और कर्म के गहन सिद्धांतों का संग्रह है। इसी ग्रंथ के भीतर भगवद गीता का उपदेश भी आता है, जो मानव जीवन का मार्गदर्शन करने वाला अद्भुत ग्रंथ है। महर्षि व्यास ने पुराणों की रचना का कार्य भी प्रारंभ किया। कहा जाता है कि उन्होंने 18 प्रमुख पुराणों की रचना की, जिनमें भागवत पुराण विशेष रूप से प्रसिद्ध...

GANDHARI

  महाभारत की गांधारी  गांधारी महाभारत की एक प्रमुख और आदर्श महिला पात्र थीं। वे गांधार देश के राजा सुबल की पुत्री और हस्तिनापुर के अंधे राजा धृतराष्ट्र की पत्नी थीं। गांधारी को उनकी महान त्याग, पतिव्रता और धर्मनिष्ठा के लिए जाना जाता है। जब गांधारी को यह पता चला कि उनके होने वाले पति धृतराष्ट्र अंधे हैं, तो उन्होंने स्वयं अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली और जीवनभर अंधकार में रहने का संकल्प लिया। उनका यह निर्णय त्याग और सहानुभूति का प्रतीक था। उन्होंने यह दिखाया कि सच्चा प्रेम केवल सुख-सुविधा में नहीं, बल्कि जीवन के हर कठिन क्षण में साथ निभाने में है। गांधारी ने सौ पुत्रों और एक पुत्री का जन्म दिया, जिनमें ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन था। वे अपने पुत्रों से अत्यधिक स्नेह करती थीं, लेकिन जब वे अधर्म के मार्ग पर चले, तब उन्होंने उन्हें रोकने की भरपूर कोशिश की। उन्होंने कई बार धृतराष्ट्र और दुर्योधन को धर्म का पालन करने की सलाह दी, किंतु किसी ने उनकी बात नहीं मानी। महाभारत के युद्ध में जब उनके सभी पुत्र मारे गए, तो गांधारी अत्यंत दुखी हुईं। उन्होंने श्रीकृष्ण को युद्ध रोकने में असफल रहने...