DRONACHARYA
द्रोणाचार्य
महर्षि द्रोणाचार्य महाभारत के प्रसिद्ध पात्रों में से एक हैं। वे अद्वितीय योद्धा, श्रेष्ठ धनुर्विद्या शिक्षक और कौरव-पांडवों के गुरु थे। उनका नाम भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परंपरा के आदर्श के रूप में लिया जाता है।
द्रोणाचार्य का जन्म महर्षि भरद्वाज के आश्रम में हुआ था। वे बचपन से ही शास्त्र और शस्त्र दोनों के ज्ञाता थे। उन्होंने भगवान परशुराम से अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा प्राप्त की। विवाह के बाद जब वे गरीबी में जीवन व्यतीत कर रहे थे, तब अपने मित्र राजा द्रुपद से सहायता मांगने गए, परंतु द्रुपद ने उन्हें अपमानित कर दिया। इसी कारण द्रोणाचार्य ने प्रतिज्ञा ली कि वे एक दिन द्रुपद को परास्त करेंगे।
द्रोणाचार्य को बाद में हस्तिनापुर के राजकुमारों के गुरु के रूप में नियुक्त किया गया। उन्होंने पांडवों और कौरवों को युद्धकला और नीति की शिक्षा दी। उनके शिष्य अर्जुन विशेष रूप से उनके प्रिय थे, क्योंकि अर्जुन सबसे अधिक निष्ठावान और परिश्रमी थे। द्रोणाचार्य ने उन्हें “श्रेष्ठ धनुर्धर” बनाने का वचन दिया और उसे निभाया।
महाभारत के युद्ध में द्रोणाचार्य कौरवों की ओर से लड़े, क्योंकि वे राजा धृतराष्ट्र के अधीन गुरु होने के नाते अपने कर्तव्य का पालन कर रहे थे। युद्ध के दौरान उनकी मृत्यु एक रणनीति के तहत हुई, जब उन्हें यह झूठ बताया गया कि उनके पुत्र अश्वत्थामा मारे गए हैं।
द्रोणाचार्य का जीवन ज्ञान, अनुशासन और कर्तव्यनिष्ठा का प्रतीक है। उन्होंने सिखाया कि सच्चा गुरु केवल शिक्षा नहीं देता, बल्कि अपने शिष्य के व्यक्तित्व का निर्माण भी करता है।
इस प्रकार, द्रोणाचार्य भारतीय इतिहास में गुरु के आदर्श स्वरूप के रूप में अमर हैं, जिनकी शिक्षाएँ आज भी श्रद्धा और प्रेरणा का स्रोत हैं।
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