EKLAVYA
एकलव्य
एकलव्य महाभारत के महान और प्रेरणादायक पात्रों में से एक हैं। वे निष्ठा, समर्पण और गुरु-भक्ति के प्रतीक माने जाते हैं। एकलव्य निषाद राज हिरण्यधनु के पुत्र थे और बचपन से ही महान धनुर्धर बनने की आकांक्षा रखते थे। उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि सच्ची लगन और श्रद्धा से कोई भी व्यक्ति सफलता प्राप्त कर सकता है।
कथा के अनुसार, एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सीखने की इच्छा व्यक्त की। लेकिन द्रोणाचार्य ने यह कहकर उन्हें शिक्षा देने से मना कर दिया कि वे केवल राजकुमारों को ही शिक्षा देते हैं। इससे निराश होने के बजाय एकलव्य ने मिट्टी की मूर्ति बनाकर द्रोणाचार्य को अपना गुरु मान लिया और उनके नाम से प्रतिदिन साधना करने लगे।
अपनी कठोर मेहनत और आत्मविश्वास के बल पर एकलव्य ने असाधारण धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त कर ली। जब द्रोणाचार्य ने देखा कि वह उनके शिष्यों से भी श्रेष्ठ धनुर्धर बन चुका है, तो उन्होंने गुरु-दक्षिणा के रूप में एकलव्य से उसका दाहिना अंगूठा माँग लिया। बिना किसी प्रश्न या विरोध के एकलव्य ने अपना अंगूठा काटकर गुरु को अर्पित कर दिया।
एकलव्य का यह त्याग भारतीय संस्कृति में गुरु-भक्ति और निष्ठा का अद्वितीय उदाहरण बन गया। यद्यपि उन्होंने अपने जीवन का सबसे बड़ा बलिदान दिया, परंतु उनका नाम इतिहास में अमर हो गया।
एकलव्य की कहानी यह सिखाती है कि सच्चा विद्यार्थी वह है जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होता और अपने गुरु के प्रति अटूट सम्मान बनाए रखता है।
इस प्रकार, एकलव्य भारतीय इतिहास में समर्पण, स्वाभिमान और अटूट श्रद्धा के अमर प्रतीक के रूप में सदैव याद किए जाते हैं।
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