MAHARSHI DURVASA
महर्षि दुर्वासा
महर्षि दुर्वासा हिंदू धर्म के प्रसिद्ध और तेजस्वी ऋषि थे, जो अपने कठोर स्वभाव और क्रोध के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। वे महर्षि अत्रि और माता अनुसूया के पुत्र थे। दुर्वासा का नाम संस्कृत के शब्द “दुर्वास” से बना है, जिसका अर्थ होता है — “जिसके साथ रहना कठिन हो,” और यह उनके तीव्र स्वभाव का प्रतीक है।
महर्षि दुर्वासा का व्यक्तित्व अत्यंत अद्भुत था। वे गहन तपस्वी और शक्तिशाली ऋषि थे, जिनके श्राप और वरदान दोनों का प्रभाव असीम माना जाता था। कहा जाता है कि वे छोटे से अपमान पर भी क्रोधित हो जाते थे, किंतु उनका क्रोध सदैव धर्म की स्थापना और दूसरों को सबक सिखाने के लिए होता था।
महर्षि दुर्वासा से जुड़ी कई प्रसिद्ध कथाएँ पुराणों में मिलती हैं। एक कथा के अनुसार, उनके श्राप के कारण भगवान इंद्र का वैभव नष्ट हुआ और समुद्र मंथन की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। एक अन्य कथा में, उन्होंने द्रौपदी को आशीर्वाद दिया था कि उनके बर्तन में जब तक अन्न रहेगा, कोई अतिथि भूखा नहीं जाएगा। इसी वरदान ने पांडवों को कठिन परिस्थितियों में बचाया।
दुर्वासा ऋषि केवल क्रोधी ही नहीं, बल्कि अत्यंत ज्ञानी और धर्मनिष्ठ भी थे। उन्होंने अनेक बार मनुष्यों और देवताओं को संयम, विनम्रता और सेवा का महत्व समझाया। उनके जीवन से यह शिक्षा मिलती है कि प्रत्येक कार्य में मर्यादा और सम्मान का पालन करना चाहिए।
संक्षेप में, महर्षि दुर्वासा एक महान योगी और धर्मरक्षक ऋषि थे। उनका जीवन यह सिखाता है कि क्रोध तब तक उचित है जब तक वह अधर्म के विरोध में हो और धर्म की रक्षा के लिए प्रयुक्त हो। वे भारतीय ऋषि परंपरा के तेज, तप और न्याय के प्रतीक हैं।
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