RAJA RAGHU
राजा रघु प्राचीन भारत के सूर्यवंशी (इक्ष्वाकु) वंश के एक महान और प्रतापी सम्राट थे। वे राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा के पुत्र थे तथा भगवान श्रीराम के पूर्वज थे। उनके नाम पर ही इस वंश को रघुवंश कहा जाता है। संस्कृत के प्रसिद्ध कवि कालिदास ने अपनी महाकाव्य रचना “रघुवंशम्” में राजा रघु की महिमा और पराक्रम का विस्तृत वर्णन किया है।
राजा रघु का चरित्र धर्म, शौर्य, दान और तपस्या का प्रतीक माना जाता है। वे एक ऐसे राजा थे जिन्होंने अपने जीवन में न केवल राजधर्म का पालन किया, बल्कि प्रजापालन को भी सर्वोच्च प्राथमिकता दी। उनके शासन में अयोध्या राज्य समृद्ध, सुरक्षित और धर्ममय था।
एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार, राजा रघु ने अश्वमेध यज्ञ किया था, जिसे सफलतापूर्वक संपन्न करने के लिए उन्होंने संपूर्ण पृथ्वी पर विजय प्राप्त की। उन्होंने सभी दिशाओं में अपने दूत और सेना भेजकर साम्राज्य का विस्तार किया, लेकिन उन्होंने किसी राज्य पर अत्याचार नहीं किया। युद्ध केवल धर्म और सत्य की रक्षा के लिए किए गए थे।
अश्वमेध यज्ञ के दौरान ऋषि-कन्या कौशिकी और अन्य ब्राह्मणों को दान देने के लिए जब राजा रघु के पास धन समाप्त हो गया, तब उन्होंने देवता कुबेर से धन प्राप्त करने के लिए तपस्या की। उनकी तपस्या और निष्ठा से प्रसन्न होकर कुबेर ने उन्हें अपार धन दिया, जिससे उन्होंने यज्ञ पूर्ण किया और ब्राह्मणों को यथायोग्य दान दिया। यह घटना राजा रघु के त्याग और दानशीलता को दर्शाती है।
राजा रघु का जीवन एक आदर्श शासक की मिसाल है—जो न केवल विजेता था, बल्कि धर्म के मार्ग पर चलने वाला, प्रजापालक और तपस्वी भी था। उन्होंने अपने पुत्र राजा अजातशत्रु (कालिदास के अनुसार अजातशत्रु को काकुत्स्थ कहा गया है) को राज्य सौंपकर वानप्रस्थ ग्रहण किया और शेष जीवन आत्मचिंतन में बिताया।
निष्कर्ष:
राजा रघु भारतीय इतिहास और साहित्य में एक महानायक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनका जीवन एक ऐसे राजा की कहानी है, जो शक्ति के साथ-साथ धर्म, दान और विवेक का भी प्रतीक था। उनके आदर्श आज भी समाज के लिए प्रेरणा हैं और उनका नाम युगों-युगों तक सम्मानपूर्वक लिया जाता रहेगा।
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