LORD RISHABHNATH
भगवान ऋषभनाथ जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं। उन्हें आदिनाथ के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि वे जैन तीर्थंकरों की परंपरा के पहले प्रवर्तक थे। ऋषभनाथ को मानव सभ्यता के पहले मार्गदर्शक, धर्म के प्रवर्तक और सामाजिक व्यवस्था की नींव रखने वाला महान आत्मा माना जाता है। उनका उल्लेख ऋग्वेद, भागवत पुराण, तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है, जिससे उनकी ऐतिहासिकता और आध्यात्मिक महत्व की पुष्टि होती है।
जन्म और परिवार
भगवान ऋषभनाथ का जन्म अयोध्या में हुआ था। उनके पिता का नाम राजा नाभिराज और माता का नाम मरुदेवी था। नाभिराज इक्ष्वाकु वंश के राजा थे, और यह वंश सूर्यवंशी माना जाता है। ऋषभनाथ का जन्म एक अत्यंत शुभ और दिव्य घटना के रूप में हुआ था। उनकी माता मरुदेवी ने उनके जन्म से पूर्व 16 शुभ स्वप्न देखे थे, जो यह संकेत करते थे कि एक महान आत्मा का जन्म होने वाला है।
शिक्षा और सामाजिक योगदान
ऋषभनाथ ने मानव समाज को अनेक प्रकार की विद्याएँ और कौशल सिखाए। उन्होंने ही पहली बार लोगों को खेती, व्यापार, कला, शिल्प, संगीत, लिपि, और न्याय व्यवस्था जैसी मूलभूत चीजों की शिक्षा दी। यही कारण है कि उन्हें मानव सभ्यता का प्रथम गुरु माना जाता है।
उन्होंने समाज को चार वर्णों में विभाजित किया – क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र – ताकि सामाजिक संरचना सुव्यवस्थित रहे। वे केवल आध्यात्मिक गुरु ही नहीं थे, बल्कि एक आदर्श शासक और समाज सुधारक भी थे।
वैराग्य और तपस्या
एक समय के बाद ऋषभनाथ ने अपने पुत्र भरत को राज्य सौंप दिया और वैराग्य ग्रहण कर सन्न्यास ले लिया। उन्होंने दीक्षा लेकर तपस्या प्रारंभ की और आत्मज्ञान की खोज में निकल पड़े। उनकी तपस्या अत्यंत कठोर और गहन थी। वे एक वर्ष तक बिना अन्न-जल के मौन रहकर ध्यान में लीन रहे। अंततः उन्हें केवलज्ञान (सर्वज्ञान) की प्राप्ति हुई और वे तीर्थंकर कहलाए।
मोक्ष
भगवान ऋषभनाथ ने अष्टापद पर्वत (जो अब कैलाश पर्वत के निकट माना जाता है) पर जाकर मोक्ष प्राप्त किया। यहीं पर उन्होंने अपने शरीर का त्याग कर आत्मा को परम अवस्था में पहुंचाया।
प्रतीक और पूजा
उनका प्रतीक चिह्न बैल है और उनका वर्ण स्वर्ण जैसा चमकीला माना जाता है। जैन मंदिरों में भगवान ऋषभनाथ की प्रतिमाएँ बैल के चिन्ह के साथ स्थापित होती हैं। उनका स्मरण उन्हें आदिगुरु, आदिनाथ और मानवता के शिक्षक के रूप में किया जाता है।
निष्कर्ष
भगवान ऋषभनाथ न केवल जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं, बल्कि वे भारतीय संस्कृति, धर्म और सभ्यता के भी आदिशिल्पी हैं। उनका जीवन तप, त्याग, ज्ञान और सेवा का अद्वितीय उदाहरण है। उनका संदेश आज भी हमें संयम, धर्म और सदाचार का मार्ग दिखाता है।
ऋषभनाथ – मानवता के पहले शिक्षक और धर्म के प्रथम दीपस्तंभ।
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