NAMI NATH

 

नामिनाथ (NAMINATH) 

भगवान नामिनाथ जैन धर्म के 21वें तीर्थंकर थे। वे एक अत्यंत तेजस्वी, करुणामयी और धर्मपरायण व्यक्तित्व के धनी थे। उनका जन्म अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकु वंश में राजा विजय और रानी विप्रदा के यहाँ हुआ था। उनका जन्मकाल त्रेतायुग में माना जाता है। जन्म के समय उनके नामकरण के लिए विशेष धार्मिक अनुष्ठान किया गया और उन्हें “नामिनाथ” नाम दिया गया।

भगवान नामिनाथ का जीवन त्याग, तपस्या और अहिंसा का प्रतीक रहा है। बचपन से ही वे बहुत शांत, सहनशील और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। उन्हें सांसारिक सुखों में कोई आकर्षण नहीं था। वे गहराई से यह समझ चुके थे कि यह संसार दुःखों से भरा हुआ है और आत्मा की शुद्धि ही इसका वास्तविक समाधान है।

जब वे युवावस्था में पहुँचे, तो उनके विवाह की तैयारी की गई। परंतु विवाह से पहले उन्होंने जीवन के क्षणभंगुर स्वरूप को अनुभव किया और यह निश्चय किया कि वे सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर आत्मकल्याण की ओर अग्रसर होंगे। उन्होंने राजपाठ, परिवार और समस्त वैभव को त्याग कर वन की ओर प्रस्थान किया और दीक्षा लेकर तपस्वी जीवन अपनाया।

भगवान नामिनाथ ने बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या, ध्यान और संयम के प्रभाव से अंततः उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। केवलज्ञान प्राप्ति के बाद वे तीर्थंकर के रूप में प्रतिष्ठित हुए और उन्होंने अनेक वर्षों तक धर्म का उपदेश दिया।

उन्होंने लोगों को पंचमहाव्रत—अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह—का पालन करने की प्रेरणा दी। उनका संदेश था कि आत्मा ही मोक्ष का मार्ग है और सही आचरण से ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है।

भगवान नामिनाथ का चिन्ह नीलकमल (नीला कमल) है, और उनकी प्रतिमाओं में यह चिन्ह अंकित होता है। वे समवसरण में बैठकर अनगिनत जीवों को उपदेश देते थे। अंततः वे सम्मेद शिखर (झारखंड) पर्वत पर जाकर निर्वाण को प्राप्त हुए।

भगवान नामिनाथ का जीवन आज भी संयम, त्याग और आध्यात्मिक जागरण का आदर्श उदाहरण है। वे जैन धर्म के अनुयायियों के लिए श्रद्धा और भक्ति का केंद्र हैं, और उनका संदेश आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।

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