TRETA YUG



त्रेतायुग

त्रेतायुग हिंदू धर्म में वर्णित चार युगों (सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग) में दूसरा युग है। यह युग धर्म के चार में से तीन स्तंभों पर टिका था, अर्थात सत्य, तप और यज्ञ प्रमुख थे, जबकि एक स्तंभ (दया) में कमी आने लगी थी। 'त्रेता' का अर्थ है 'तीन', जो इस युग में धर्म के तीन प्रमुख स्तंभों के स्थायित्व का संकेत करता है। त्रेतायुग का विशेष महत्त्व है क्योंकि इसी युग में अनेक पौराणिक घटनाएँ और भगवान विष्णु के प्रसिद्ध अवतार हुए।

त्रेतायुग की अवधि और विशेषताएँ:

धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, त्रेतायुग लगभग 12 लाख 96 हजार वर्षों तक चला। इस युग में मनुष्यों की आयु और शक्ति सत्ययुग की तुलना में कुछ कम हो गई थी, परंतु वे फिर भी धर्मनिष्ठ और धार्मिक आचरण वाले थे। इस युग में समाज में कर्मकांडों और यज्ञों का अत्यधिक प्रचलन हुआ। यज्ञ, व्रत, तपस्या और दान को धर्म के प्रमुख अंग माना गया।

त्रेतायुग के प्रमुख अवतार और घटनाएँ:

त्रेतायुग में भगवान विष्णु ने दो महान अवतार लिए — वामन अवतार और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का अवतार।

  • वामन अवतार में भगवान विष्णु ने एक बौने ब्राह्मण के रूप में जन्म लेकर दैत्यराज बलि से तीन पगों में सारा ब्रह्मांड मांग लिया और उसे पाताल भेजा।
  • रामावतार त्रेतायुग की सबसे महत्वपूर्ण घटना है। अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र के रूप में भगवान राम ने जन्म लिया। रामायण के अनुसार, उन्होंने रावण जैसे अधर्मी राक्षस का वध कर धर्म की स्थापना की। रामराज्य को आदर्श शासन का प्रतीक माना जाता है, जहाँ धर्म, न्याय और सुख-शांति का साम्राज्य था।

त्रेतायुग में ही भगवान परशुराम का भी अवतार हुआ, जिन्होंने अन्याय करने वाले क्षत्रियों का नाश किया और धर्म की रक्षा की। परशुराम को महान तपस्वी और अद्वितीय योद्धा माना जाता है।

समाज और जीवनशैली:

त्रेतायुग में समाज में वर्ण व्यवस्था अधिक स्पष्ट हो गई थी। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्य और शूद्रों के अलग-अलग कर्तव्य और धर्म निर्धारित किए गए। यद्यपि वर्गीकरण था, परंतु सामाजिक समरसता बनी रही। लोग यज्ञ, व्रत और दान के द्वारा अपने जीवन को पवित्र बनाने का प्रयास करते थे।

त्रेतायुग में अन्याय और अधर्म ने धीरे-धीरे सिर उठाना शुरू कर दिया था। रावण जैसे असुरों ने संसार में भय और अत्याचार फैलाया, लेकिन भगवान राम और अन्य धर्मनिष्ठ राजाओं ने पुनः धर्म की रक्षा की।

त्रेतायुग का अंत:

जब अधर्म बढ़ने लगा और मानवों में काम, क्रोध, लोभ जैसे दोष उत्पन्न होने लगे, तो त्रेतायुग का अंत हुआ और द्वापरयुग की शुरुआत हुई। धर्म का बल तीन भाग से घटकर आधा रह गया।

निष्कर्ष:

त्रेतायुग धर्म और अधर्म के बीच संतुलन बनाए रखने का युग था। इस युग ने मानवता को रामराज्य जैसे आदर्श शासन का आदर्श दिया। त्रेतायुग हमें सिखाता है कि कठिन परिस्थितियों में भी धर्म, सत्य और कर्तव्य का पालन करना चाहिए। यदि हम त्रेतायुग के आदर्शों को अपनाएँ, तो आज भी समाज में शांति, न्याय और सद्भावना स्थापित की जा सकती है।


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