MUNI SUBRAT NATH
सुभ्रतनाथ (Subratnath)
भगवान सुभ्रतनाथ जैन धर्म के 20वें तीर्थंकर थे। उनका जन्म अयोध्या नगरी में राजा पद्म और रानी सिद्धार्था के यहाँ हुआ था। वे इक्ष्वाकु वंश से संबंधित थे, जो कि जैन धर्म के कई तीर्थंकरों का वंश रहा है। उनका जन्म त्रेतायुग में हुआ माना जाता है।
सुभ्रतनाथ का बाल्यकाल अत्यंत शांत, संयमी और गुणों से परिपूर्ण था। वे बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे और उन्हें सांसारिक विषयों में कोई आकर्षण नहीं था। जैसे-जैसे वे बड़े हुए, उन्होंने देखा कि यह संसार दुख, मोह और बंधनों से भरा हुआ है। वे आत्मा की मुक्ति और शुद्धि की ओर आकर्षित होने लगे।
राजकाज की जिम्मेदारी निभाने के बाद उन्होंने वैराग्य प्राप्त किया और संसार का त्याग कर तपस्या का मार्ग अपनाया। उन्होंने जंगलों में जाकर वर्षों तक कठोर तप और ध्यान किया। अंततः उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और वे तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध हुए।
भगवान सुभ्रतनाथ ने पंचमहाव्रतों—अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह—का उपदेश दिया। उन्होंने आत्मा की शुद्धि और मोक्ष के मार्ग की ओर लाखों जीवों को प्रेरित किया। उनके उपदेशों से लोगों को जीवन का सही अर्थ समझ में आया और उन्होंने त्याग, संयम तथा करुणा का पालन करना सीखा।
भगवान सुभ्रतनाथ का चिन्ह स्वस्तिक है और उनकी पूजा जैन धर्म के अनुयायी श्रद्धा और भक्ति से करते हैं। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने सम्मेद शिखर पर जाकर निर्वाण प्राप्त किया। उनका जीवन आज भी सत्य, अहिंसा और आत्मज्ञान का प्रेरक स्रोत है।
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