ANANT NATH
अनंतनाथ (Anantnath)
भगवान अनंतनाथ जैन धर्म के 14वें तीर्थंकर थे। उनका जन्म अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकु वंश के राजा सिन्हसेन और रानी सुयशा के घर हुआ था। उनका जन्म श्रावण शुक्ल त्रयोदशी के दिन हुआ, जो जैन धर्म के लिए अत्यंत पावन तिथि मानी जाती है।
अनंतनाथ का जीवन त्याग, तपस्या और आत्मज्ञान की मिसाल है। वे बचपन से ही बहुत शांत, गंभीर और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। उन्हें सांसारिक विषयों में रुचि नहीं थी। वे आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति के लिए हमेशा चिंतनशील रहते थे। युवावस्था में उन्होंने कुछ समय तक राजकार्य संभाला और अपनी प्रजा का कल्याण किया।
लेकिन जल्द ही उन्होंने संसार की नश्वरता को समझा और वैराग्य प्राप्त कर लिया। 30 वर्ष की आयु में उन्होंने राज-पाठ और सांसारिक बंधनों को त्यागकर दीक्षा ली और तपस्वी जीवन अपना लिया। उन्होंने कई वर्षों तक कठोर तपस्या की, जिससे उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।
केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान अनंतनाथ ने समवसरण में बैठकर धर्मचक्र प्रवर्तन किया। उन्होंने पंचमहाव्रत—अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह—का उपदेश दिया और असंख्य लोगों को आत्मकल्याण का मार्ग दिखाया।
भगवान अनंतनाथ का प्रतीक चिन्ह फलक (फलक चिन्ह या छत्र) है। उनकी प्रतिमाओं में यह चिन्ह स्पष्ट रूप से अंकित होता है। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने सम्मेद शिखर पर्वत पर जाकर निर्वाण प्राप्त किया।
भगवान अनंतनाथ का जीवन आज भी जैन अनुयायियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनका संदेश हमें बताता है कि त्याग, संयम और सही मार्ग पर चलकर आत्मा को शुद्ध किया जा सकता है और मोक्ष की प्राप्ति संभव है।
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