BHAGWAN PADMPRAVHA

 

भगवान पद्मप्रभ स्वामी जैन धर्म के छठे तीर्थंकर थे। उनका जन्म इक्ष्वाकु वंश में हुआ था और उनके पिता का नाम धर्मसेना तथा माता का नाम सुसीमा था। भगवान पद्मप्रभ का जन्म कौशाम्बी नगरी में हुआ था। उनका नाम "पद्मप्रभ" इसलिए रखा गया क्योंकि उनके जन्म के समय अनेक कमल (पद्म) प्रकट हुए थे और उनके शरीर की आभा भी कमल के समान लालिमा लिए हुए थी।

भगवान पद्मप्रभ का जीवन बहुत ही शांत और दिव्य था। उन्होंने युवावस्था में राजपाठ त्याग कर तपस्या का मार्ग अपनाया। बारह वर्षों की कठिन साधना और तपस्या के पश्चात उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने जीवों के कल्याण हेतु धर्म का उपदेश दिया और अनेक लोगों को मोक्ष मार्ग की ओर प्रेरित किया।

उनकी शिक्षाएं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर आधारित थीं। वे मानते थे कि आत्मा की शुद्धि ही मोक्ष का मार्ग है। भगवान पद्मप्रभ ने लोगों को सिखाया कि संसारिक सुख-दुख क्षणिक हैं और सच्चा सुख आत्मज्ञान में ही है।

भगवान पद्मप्रभ ने अनेक वर्षों तक धर्म का प्रचार किया और अंततः सम्मेद शिखर पर्वत पर जाकर निर्वाण प्राप्त किया। उनका चिह्न कमल था और उनका वर्ण लाल था। भगवान पद्मप्रभ जैन धर्म के आदर्श तपस्वी और ज्ञान के प्रतीक माने जाते हैं।

उनका जीवन हमें त्याग, तपस्या और आत्मकल्याण की प्रेरणा देता है। आज भी जैन अनुयायी उन्हें श्रद्धा और भक्ति के साथ स्मरण करते हैं और उनके आदर्शों को अपने जीवन में अपनाने का प्रयास करते हैं।

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