BHAGWAN CHANDRAPRABHU

 

भगवान चंद्रप्रभ 

भगवान चंद्रप्रभ जैन धर्म के आठवें तीर्थंकर थे। उनका जन्म भारत के श्रावस्ती नगर में हुआ था। उनके पिता का नाम महाराज महाशेन और माता का नाम लक्ष्मणा देवी था। वे इक्ष्वाकु वंश के राजा थे। चंद्रप्रभ का जन्म अत्यंत शुभ समय पर हुआ था और उनके जन्म के समय चंद्रमा के समान शीतल प्रकाश फैल गया था, इसी कारण उनका नाम "चंद्रप्रभ" रखा गया, जिसका अर्थ है—चंद्रमा के समान तेज और शांति से युक्त।

भगवान चंद्रप्रभ बचपन से ही अत्यंत बुद्धिमान, करुणामय और संयमी स्वभाव के थे। युवावस्था में वे राजकाज में निपुण थे, किंतु उन्होंने संसार की असारता को समझते हुए अल्पकाल में ही राज-पाठ का त्याग कर दिया और आत्मकल्याण की दिशा में बढ़े। उन्होंने दीक्षा लेकर जंगलों में कठोर तपस्या की और बारह वर्षों तक घोर साधना की।

कठिन तपस्या और आत्मचिंतन के परिणामस्वरूप उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने धर्मचक्र प्रवर्तन किया और जीवों को मोक्ष मार्ग की ओर प्रेरित किया। वे उपदेश देते थे कि आत्मा अनंत शक्ति, ज्ञान और शांति का स्रोत है। इसे जानने और अनुभव करने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे सिद्धांतों को जीवन में अपनाए।

भगवान चंद्रप्रभ का शरीर श्वेत वर्ण का था, जो चंद्रमा की तरह उज्ज्वल और आकर्षक था। उनका चिह्न "चंद्रमा" था, जो उनके शीतल और शांत स्वभाव का प्रतीक माना जाता है। वे हमेशा समता, क्षमा और दया के मार्ग पर चलते थे। उनके उपदेशों ने समाज में नैतिकता, संयम और आत्मदर्शन की भावना को जाग्रत किया।

भगवान चंद्रप्रभ ने अपने जीवन के अंतिम समय में सम्मेद शिखर पर्वत पर जाकर समाधि ली और वहीं पर उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ। आज भी जैन श्रद्धालु उन्हें अत्यंत श्रद्धा से पूजते हैं और उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग का अनुसरण करते हैं।

उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्ची शांति और सुख भौतिक वस्तुओं में नहीं, बल्कि आत्मज्ञान और मोक्ष में निहित है। भगवान चंद्रप्रभ तप, त्याग और आत्मज्ञान के अद्भुत प्रतीक हैं।

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