KUNTHU NATH
कुंथुनाथ (Kunthunath)
भगवान कुंथुनाथ जैन धर्म के 17वें तीर्थंकर थे। उनका जन्म कुण्डलपुर (वर्तमान में मध्यप्रदेश) में राजा विशुद्ध और रानी श्रीमती के यहाँ हुआ था। वे इक्ष्वाकु वंश से थे, जो कि एक पवित्र और प्रतिष्ठित वंश माना जाता है। उनका जन्म माघ माह की शुक्ल त्रयोदशी तिथि को हुआ था। उनका जन्म एक दिव्य घटना के रूप में हुआ, जिससे यह स्पष्ट था कि वे एक महान आत्मा हैं।
भगवान कुंथुनाथ का बचपन अत्यंत शांत, विनम्र और धार्मिक प्रवृत्ति का था। वे बचपन से ही आत्मा के शुद्धिकरण और मोक्ष के मार्ग पर चलने के इच्छुक थे। वे सांसारिक विषयों में कोई विशेष रुचि नहीं रखते थे। युवावस्था में उन्होंने अपने कर्तव्यों को निभाया और कुछ समय के लिए राज्य की जिम्मेदारियाँ संभाली। लेकिन समय के साथ, उन्हें यह समझ में आ गया कि संसार की नश्वरता और सुख-संसार केवल दुखों का कारण बनते हैं।
राजकाज को छोड़कर, उन्होंने आत्मज्ञान के लिए तपस्या का मार्ग अपनाया और दीक्षा प्राप्त की। उन्होंने कठिन तपस्या की और अंततः केवलज्ञान प्राप्त किया। इसके बाद भगवान कुंथुनाथ ने धर्मचक्र प्रवर्तन किया और अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, और अचौर्य जैसे पंचमहाव्रतों का प्रचार किया।
भगवान कुंथुनाथ का प्रतीक चिन्ह अश्व (घोड़ा) है। उनकी मूर्तियों में यह चिन्ह अंकित होता है। उन्होंने अपने जीवन में संयम, तपस्या और संतुलित जीवन के आदर्श प्रस्तुत किए। अंततः उन्होंने सम्मेद शिखर पर जाकर निर्वाण प्राप्त किया।
भगवान कुंथुनाथ का जीवन जैन धर्म के अनुयायियों के लिए एक प्रेरणा है, जो यह सिखाता है कि संसार के भौतिक सुखों से परे जाकर आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति की दिशा में कार्य करना चाहिए।
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