WHO were SHUDRAS?

 

“शूद्र कौन थे?” – डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा लिखित पुस्तक की समालोचना 

डॉ. भीमराव अंबेडकर की पुस्तक "शूद्र कौन थे?" (Who Were the Shudras?) भारतीय सामाजिक व्यवस्था, विशेष रूप से वर्ण व्यवस्था और जातिवाद की गहराई से पड़ताल करती है। यह पुस्तक पहली बार 1946 में प्रकाशित हुई थी और यह डॉ. अंबेडकर की सबसे विचारोत्तेजक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से समृद्ध कृतियों में से एक मानी जाती है। इसमें उन्होंने यह विश्लेषण करने का प्रयास किया कि शूद्र, जो वर्तमान में हिंदू समाज के सबसे निचले पायदान पर माने जाते हैं, वास्तव में कौन थे और कैसे वे सामाजिक दृष्टि से अधोगति को प्राप्त हुए।


पुस्तक का उद्देश्य

इस पुस्तक का मूल उद्देश्य यह जानना है कि शूद्रों की उत्पत्ति कैसे हुई, और वे कैसे भारतीय समाज के सबसे निचले स्तर पर पहुँचे। अंबेडकर का मानना है कि शूद्रों को हमेशा से ही निचले वर्ग के रूप में नहीं देखा गया था, बल्कि यह एक ऐतिहासिक, राजनीतिक और धार्मिक प्रक्रिया का परिणाम था। वे इस पुस्तक के माध्यम से यह स्थापित करना चाहते हैं कि शूद्रों की वर्तमान स्थिति कृत्रिम और मनुष्य-निर्मित है, न कि कोई दैवी व्यवस्था।


मुख्य तर्क और विचार

1. शूद्र मूलतः क्षत्रिय थे

अंबेडकर का सबसे महत्वपूर्ण दावा यह है कि शूद्र मूलतः आर्य क्षत्रिय थे। उन्होंने पौराणिक ग्रंथों, वेदों, पुराणों और इतिहासिक घटनाओं का हवाला देते हुए यह साबित करने की कोशिश की कि शूद्रों की उत्पत्ति किसी दास या गुलाम वर्ग से नहीं हुई थी, जैसा कि बाद में ब्राह्मणवादी विचारधारा में प्रचारित किया गया।
वह कहते हैं कि शूद्रों को ब्राह्मणों के साथ संघर्ष में पराजित होने के बाद सामाजिक दृष्टि से नीचे धकेल दिया गया और उन्हें वेदों का अध्ययन करने, यज्ञ करने, और सामाजिक मान-सम्मान से वंचित कर दिया गया।

2. ब्राह्मणों और शूद्रों के बीच संघर्ष

अंबेडकर शूद्रों की अधोगति के पीछे ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच हुए राजनीतिक संघर्ष को प्रमुख कारण मानते हैं। उनका कहना है कि जब कुछ क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के अधिकार को चुनौती दी, तो ब्राह्मणों ने उन्हें सामाजिक रूप से दंडित किया और धीरे-धीरे वे शूद्र के रूप में चिह्नित किए जाने लगे।

3. मनुस्मृति और अन्य धर्मग्रंथों की भूमिका

अंबेडकर ने मनुस्मृति और अन्य धर्मशास्त्रों की आलोचना करते हुए उन्हें जाति-आधारित भेदभाव को बढ़ावा देने वाला बताया। वे कहते हैं कि इन ग्रंथों में वर्ण व्यवस्था को ईश्वर-प्रदत्त बता कर समाज में असमानता को स्थायी बनाया गया। शूद्रों को शिक्षा, मंदिर प्रवेश, और सामाजिक सहभागिता से वंचित करने वाले नियम इन्हीं ग्रंथों में पाए जाते हैं।

4. जाति और वर्ण में अंतर

अंबेडकर इस पुस्तक में एक और महत्वपूर्ण अंतर स्पष्ट करते हैं – जाति (caste) और वर्ण (varna) का। उनका तर्क है कि वर्ण व्यवस्था एक सैद्धांतिक सामाजिक श्रेणीकरण था जो गुण और कर्म पर आधारित थी, जबकि जाति व्यवस्था जन्म पर आधारित एक स्थिर सामाजिक विभाजन बन गई, जिसने समाज को बाँट दिया और असमानता को जन्म दिया।


शैली और प्रस्तुति

डॉ. अंबेडकर की लेखन शैली अत्यंत तार्किक, ऐतिहासिक और आलोचनात्मक है। उन्होंने अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए अनेक प्राचीन ग्रंथों, ऐतिहासिक दस्तावेजों, और सामाजिक घटनाओं का हवाला दिया है। उन्होंने अपने विचारों को भावनात्मक रंग देने की बजाय तथ्य और तर्कों के माध्यम से प्रस्तुत किया है, जिससे पुस्तक की वैज्ञानिकता और विश्वसनीयता बढ़ती है।


पुस्तक की प्रासंगिकता

आज के भारत में भी यह पुस्तक अत्यंत प्रासंगिक है। यह न केवल दलित और पिछड़े वर्गों के लिए सामाजिक चेतना का स्रोत है, बल्कि यह सभी भारतीयों के लिए इतिहास को पुनः समझने और समाज को समानता की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करती है। यह पुस्तक हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि सामाजिक व्यवस्था किस प्रकार से लोगों के अधिकार छीन सकती है और कैसे धर्म और परंपराओं के नाम पर अत्याचार को वैध ठहराया जाता है।


महत्वपूर्ण संदेश

  1. जातिवाद मानव निर्मित है, न कि ईश्वरीय।
  2. ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने अपने हितों की रक्षा के लिए शूद्रों को दबाया।
  3. शूद्रों को उनके ऐतिहासिक गौरव को वापस पाने के लिए शिक्षा और संगठन की आवश्यकता है।
  4. समानता केवल संवैधानिक अधिकारों से नहीं, सामाजिक चेतना से आएगी।

पुस्तक की आलोचना

हालाँकि यह पुस्तक कई लोगों के लिए जागृति का स्रोत है, कुछ आलोचकों का यह मानना है कि अंबेडकर ने धार्मिक ग्रंथों की बहुत अधिक आलोचना की है और उनके दृष्टिकोण में कहीं-कहीं क्रांतिकारी आक्रोश भी झलकता है। पारंपरिक हिन्दू विचारधारा के समर्थक इस पुस्तक को एकपक्षीय मानते हैं।

हालांकि, यह भी सच है कि अंबेडकर का उद्देश्य धर्म का अपमान करना नहीं, बल्कि उसके नाम पर हो रहे अन्याय को उजागर करना था। उनके विचारों को समझने के लिए एक खुले और निष्पक्ष मन की आवश्यकता है।


निष्कर्ष

"शूद्र कौन थे?" केवल एक पुस्तक नहीं है, बल्कि यह एक बौद्धिक क्रांति है, जो जातिवादी समाज की नींव को चुनौती देती है। डॉ. अंबेडकर ने इस पुस्तक के माध्यम से इतिहास की पुनर्व्याख्या की है और शूद्रों को उनके गौरवशाली अतीत की याद दिलाई है। उन्होंने तर्क, अध्ययन और ऐतिहासिक विश्लेषण के बल पर यह सिद्ध किया कि शूद्रों की वर्तमान स्थिति एक राजनीतिक साजिश और सामाजिक अन्याय का परिणाम है।

यह पुस्तक हर उस व्यक्ति को पढ़नी चाहिए जो भारतीय समाज की असमानताओं को समझना चाहता है और उन्हें दूर करने की दिशा में सोचता है। डॉ. अंबेडकर का यह कार्य आज भी सामाजिक चेतना को जागृत करने वाला और परिवर्तन की मशाल थामने वाला ग्रंथ है।


अगर आप चाहें, तो मैं इस पुस्तक का सारांश, कुछ चुनिंदा उद्धरण या अध्यायवार विवेचना भी उपलब्ध करा सकता हूँ।

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