MALLI NATH

 

मल्लिनाथ (Mallinath) 

भगवान मल्लिनाथ जैन धर्म के 19वें तीर्थंकर थे। वे जैन धर्म के इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, क्योंकि कुछ परंपराओं के अनुसार वे एक महिला तीर्थंकर थीं। दिगंबर परंपरा उन्हें पुरुष मानती है, जबकि श्वेतांबर परंपरा उन्हें महिला तीर्थंकर के रूप में स्वीकार करती है। यह विशेषता उन्हें अन्य तीर्थंकरों से अलग बनाती है।

भगवान मल्लिनाथ का जन्म मिथिला नगरी में राजा कुंभ और रानी प्रभावती के यहाँ हुआ था। उनका जन्म इक्ष्वाकु वंश में हुआ, जो कि एक प्रतिष्ठित राजवंश माना जाता है। उनका जन्मदिन मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को हुआ था। जन्म के समय ही उनके शरीर से दिव्य प्रकाश फैल गया, जिससे ज्ञात हुआ कि वे कोई साधारण आत्मा नहीं हैं।

बाल्यकाल से ही मल्लिनाथ बहुत बुद्धिमान, शांत और करुणामयी थे। वे हमेशा ध्यान और साधना में रुचि रखते थे और सांसारिक विषयों से दूर रहते थे। युवावस्था में जब उन्हें राजपाठ संभालने का अवसर मिला, तो उन्होंने जिम्मेदारियाँ निभाईं, लेकिन उनका मन वैराग्य की ओर अग्रसर होता रहा।

एक दिन उन्होंने संसार की नश्वरता और दुखों को देखकर संयम का मार्ग अपनाने का निश्चय किया। उन्होंने राजपाठ, ऐश्वर्य और सभी सुखों का त्याग कर तपस्वी जीवन स्वीकार कर लिया। दीक्षा लेने के बाद वे गहन तपस्या और ध्यान में लीन हो गए।

कई वर्षों की कठोर तपस्या के बाद मल्लिनाथ को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके पश्चात उन्होंने धर्मचक्र प्रवर्तन किया और अनेक जीवों को मोक्ष मार्ग की ओर प्रेरित किया। उन्होंने पंचमहाव्रतों—अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह—का प्रचार किया और आत्मा की शुद्धि का मार्ग बताया।

भगवान मल्लिनाथ का प्रतीक चिन्ह कलश (घड़ा) है, और उनकी प्रतिमाओं में यह चिन्ह अंकित होता है। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने सम्मेद शिखर (झारखंड) पर जाकर निर्वाण प्राप्त किया।

भगवान मल्लिनाथ का जीवन करुणा, संयम, त्याग और आध्यात्मिक बलिदान का प्रतीक है। वे जैन धर्म के अनुयायियों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं और उनका आदर्श जीवन आज भी लोगों को आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर प्रेरित करता है।

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