BHAGWAN SUPARSHVNATH

 

भगवान सुपार्श्वनाथ 

भगवान सुपार्श्वनाथ जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर थे। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी नगर में हुआ था। उनके पिता का नाम प्रभावसेन और माता का नाम प्रसन्ना देवी था। वे इक्ष्वाकु वंश के राजकुमार थे। भगवान सुपार्श्वनाथ का जन्म अतीव शुभ और दिव्य लक्षणों के साथ हुआ था, जिससे यह ज्ञात हो गया कि वे एक महान आत्मा हैं, जो आगे चलकर तीर्थंकर बनने वाले हैं।

भगवान सुपार्श्वनाथ का जीवन बचपन से ही धर्ममय रहा। वे करुणा, अहिंसा और संयम के प्रतीक माने जाते हैं। युवावस्था में ही उन्होंने संसार की अस्थिरता को समझ लिया और राजपाठ, वैभव व भोग-विलास को त्यागकर तप और साधना का मार्ग अपना लिया। उन्होंने बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की। तप के दौरान उन्होंने सभी प्रकार के कष्टों को सहन करते हुए आत्मज्ञान प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हुए।

अंततः उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और वे सर्वज्ञ बने। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात उन्होंने अनेक वर्षों तक धर्म का उपदेश दिया और जीवों को मोक्ष मार्ग की ओर प्रेरित किया। उन्होंने यह सिखाया कि आत्मा अमर है और उसके शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति ही मोक्ष है। उन्होंने अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और अस्तेय जैसे महान सिद्धांतों का प्रचार किया।

भगवान सुपार्श्वनाथ का चिह्न "स्वस्तिक" था और उनका वर्ण हरा (हरीत) था। उनके चार प्रमुख गणधरों ने उनके उपदेशों को संग्रहित कर आगे चलकर जैन आगम की रचना की। वे सदैव शांत, गंभीर और सभी के प्रति करुणाभाव रखने वाले थे।

भगवान सुपार्श्वनाथ ने अपने जीवन का अंतिम समय सम्मेद शिखर पर्वत पर व्यतीत किया, जहाँ उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। आज भी सम्मेद शिखर तीर्थ जैन श्रद्धालुओं के लिए अत्यंत पवित्र और प्रमुख तीर्थ स्थल है।

उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्चा सुख न धन में है, न सत्ता में, बल्कि आत्मज्ञान और मोक्ष में है। भगवान सुपार्श्वनाथ का आदर्श जीवन हर व्यक्ति को आत्म-सुधार और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।

Comments

Popular posts from this blog

MAHUA BAGH GHAZIPUR