BHAGWAN SHEETALNATH
भगवान शीतलनाथ
भगवान शीतलनाथ, जैन धर्म के दसवें तीर्थंकर हैं। उनका जन्म इक्ष्वाकु वंश में हुआ था। उनके पिता का नाम राजा दृढ़रथ और माता का नाम नंदा था। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के भद्रिका नगरी (वर्तमान काकोदी) में हुआ था। भगवान शीतलनाथ का जीवन तपस्या, संयम और शांति का प्रतीक माना जाता है।
भगवान शीतलनाथ के जन्म के समय संपूर्ण वातावरण शीतल और शांत हो गया था, इसलिए उनका नाम “शीतलनाथ” रखा गया। उनका शरीर स्वर्ण वर्ण का था और उनका प्रतीक चिह्न “स्वस्तिक” है। उन्होंने बचपन से ही धर्म और साधना में गहरी रुचि दिखाई और राजसी जीवन में रहते हुए भी वैराग्य की भावना उनमें प्रबल थी।
राजा बनने के बाद भी वे भोग-विलास से दूर रहे। युवावस्था में ही उन्होंने संसार की नश्वरता को समझते हुए राजपाट का त्याग किया और दीक्षा लेकर मुनि बन गए। उन्होंने कठोर तपस्या और साधना की, जिससे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद वे तीर्थंकर बने और उन्होंने समाज को धर्म, अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और संयम का उपदेश दिया।
भगवान शीतलनाथ ने जीवन भर शांति, करुणा और समभाव का संदेश दिया। उनका मानना था कि आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है। उन्होंने यह सिखाया कि बाहरी सुख-सुविधाएं तात्कालिक हैं, जबकि आत्मा की शांति और सद्गति ही स्थायी है।
भगवान शीतलनाथ ने अनगिनत लोगों को सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी और उन्हें आत्मज्ञान की दिशा में अग्रसर किया। उन्होंने दिखाया कि त्याग, तप और संयम के माध्यम से कोई भी आत्मा परम पद प्राप्त कर सकती है।
उनका निर्वाण सम्मेद शिखर (झारखंड) पर हुआ, जो जैन धर्म का एक परम पवित्र तीर्थस्थल है। आज भी जैन अनुयायी भगवान शीतलनाथ की पूजा-आराधना श्रद्धा और भक्ति से करते हैं। उनकी शिक्षाएं आज भी मानवता को धर्म, करुणा और आत्मसंयम का मार्ग दिखा रही हैं।
भगवान शीतलनाथ का जीवन संपूर्ण मानव समाज के लिए एक आदर्श और प्रेरणास्रोत है।
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