GURU GOBIND SINGH JI

 

गुरु गोबिंद सिंह जी – सिखों के दशम गुरु और साहस के प्रतीक (500 शब्दों में)

गुरु गोबिंद सिंह जी सिख धर्म के दशवें गुरु थे और उनका जीवन साहस, बलिदान, धार्मिक स्वतंत्रता और न्याय की स्थापना का प्रतीक रहा है। उनका जन्म 22 दिसम्बर 1666 को  पटना साहिब (वर्तमान बिहार) में हुआ था। उनके पिता, गुरु तेग बहादुर जी, एक महान संत और शहीद थे, जिन्होंने धर्म की रक्षा के लिए अपना जीवन बलिदान किया। गुरु गोबिंद सिंह जी का जीवन संघर्षों, युद्धों और धार्मिक कर्तव्यों के साथ-साथ साहित्य, कला और समाज सुधार की दिशा में एक महान योगदान के रूप में प्रस्तुत होता है।

बाल्यावस्था और शिक्षा

गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म एक ऐसी स्थिति में हुआ था, जब सिख समुदाय मुग़ल साम्राज्य के अत्याचारों का सामना कर रहा था। बचपन में ही उन्होंने अपने परिवार के कई सदस्यों को खो दिया। उनके पिता गुरु तेग बहादुर जी को शहीद कर दिया गया था। गुरु गोबिंद सिंह जी ने बचपन से ही उच्च स्तरीय धार्मिक शिक्षा प्राप्त की और वे बहुत अच्छे शास्त्रज्ञ, कवि और विद्वान बने। उनके शिक्षकों में गुरु राम दास जी, गुरु अर्जुन देव जी, और गुरु हरगोबिंद जी जैसे महान गुरुओं के मार्गदर्शन का प्रभाव था।

खालसा पंथ की स्थापना

गुरु गोबिंद सिंह जी का सबसे महान योगदान खालसा पंथ की स्थापना था। 1699 में, गुरु जी ने बैसाखी दिवस के मौके पर अनंदपुर साहिब में एक ऐतिहासिक दीवान (सभा) आयोजित की। इस सभा में उन्होंने पाँच सिखों को अपना सिर कटाने की चुनौती दी, और इन पाँचों सिखों ने बिना किसी भय के अपने सिर गुरु जी के चरणों में रख दिए। इससे प्रेरित होकर गुरु जी ने खालसा पंथ की स्थापना की। उन्होंने यह घोषित किया कि खालसा पंथ के सदस्य "सिंह" (शेर) के समान साहसी होंगे और "कौर" (शेरनी) के समान वीरता से लड़ेंगे। खालसा पंथ का उद्देश्य था सिखों को एकजुट करना, समाज में अन्याय और अत्याचार का विरोध करना, और धर्म की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ना।

युद्ध और बलिदान

गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी पूरी ज़िन्दगी धर्म की रक्षा और समानता के लिए संघर्ष करते हुए बिताई। उन्होंने मुग़ल सम्राट औरंगजेब और अन्य अत्याचारी शासकों के खिलाफ संघर्ष किया। गुरु जी ने सिखों के शस्त्रों के अभ्यास को बढ़ावा दिया और उन्हें लड़ाई में सिद्धता प्राप्त करने के लिए प्रशिक्षित किया। उन्होंने कई युद्ध लड़े, जिनमें मोघल साम्राज्य के खिलाफ अनंदपुर साहिब की लड़ाई (1704) और चमकौर साहिब की लड़ाई (1705) प्रमुख थीं।

शहादत और अंतिम समय

गुरु गोबिंद सिंह जी का जीवन युद्धों और संघर्षों से भरा था, लेकिन उनका अंतिम समय अत्यंत दुःखद था। 1705 में, उन्होंने अपने संगतियों के साथ, अंतिम युद्ध लड़ा, जिसमें उनके दोनों पुत्र अली वद्दा और जुझार सिंह शहीद हो गए। गुरु जी ने अपनी शहादत के साथ धर्म की रक्षा का संदेश दिया। गुरु जी ने किसी भी तरह की दीन-दुनिया की चिंता न करते हुए धर्म की सेवा को सर्वोपरि माना।

उन्होंने अपने अंतिम समय में यह वचन दिया कि "गुरु ग्रंथ साहिब" ही सिखों का शाश्वत गुरु होगा। उनका यह निर्णय सिख धर्म में गुरु ग्रंथ साहिब को सर्वश्रेष्ठ गुरु के रूप में स्थापित करने में सहायक रहा।

साहित्य और काव्य

गुरु गोबिंद सिंह जी केवल एक महान योद्धा ही नहीं थे, बल्कि एक प्रख्यात कवि और साहित्यकार भी थे। उन्होंने "वीरता", "धर्म", "न्याय" और "समाज के सुधार" के विषय पर कई महत्वपूर्ण काव्य रचनाएँ कीं। उनके प्रसिद्ध काव्य ग्रंथों में "जाप साहिब", "बचननामा", और "चंडी दी वार" शामिल हैं।


गुरु गोबिंद सिंह जी का जीवन हमें साहस, धर्म के प्रति निष्ठा, और दूसरों की सेवा का मार्ग दिखाता है। उनके द्वारा स्थापित खालसा पंथ आज भी सिखों के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो उन्हें धर्म की रक्षा और अत्याचार के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरित करता है।

उनका संदेश था – "सच्चाई, साहस और धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष करना ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए।"

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