ARAH NATH
अरहनाथ (Aranath)
भगवान अरहनाथ जैन धर्म के 18वें तीर्थंकर थे। उनका जन्म कौलापुर (वर्तमान में कौलौरी) नगरी में राजा सुदर्शन और रानी देवी माता के घर हुआ था। वे इक्ष्वाकु वंश से संबंधित थे, जो कि एक प्रतिष्ठित और पुण्यशाली राजवंश माना जाता है। उनका जन्म मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को हुआ था।
अरहनाथ बचपन से ही बहुत शांत, गंभीर और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। वे सदैव सत्य, करुणा और संयम के मार्ग पर चलते थे। उन्हें सांसारिक सुखों से कोई विशेष लगाव नहीं था। वे आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति की दिशा में चिंतनशील रहते थे।
युवावस्था में उन्होंने कुछ समय के लिए राज्य की जिम्मेदारियाँ संभालीं, लेकिन उनका मन वैराग्य की ओर था। उन्होंने 50 वर्ष की आयु में राज-पाठ और ऐश्वर्य का त्याग करके संयमित जीवन अपनाया। वे वन में जाकर तपस्या और ध्यान में लीन हो गए। उनकी तपस्या कठोर थी और उन्होंने अनेक वर्षों तक आत्मचिंतन किया।
अंततः उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके पश्चात वे तीर्थंकर बने और उन्होंने धर्मचक्र प्रवर्तन किया। उन्होंने पंचमहाव्रत—अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह—का उपदेश देकर अनगिनत लोगों को मोक्षमार्ग की ओर प्रेरित किया।
भगवान अरहनाथ का प्रतीक चिन्ह नंद्यावर्त है, जो उनकी प्रतिमाओं में अंकित होता है। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने सम्मेद शिखर (झारखंड) पर जाकर निर्वाण प्राप्त किया।
भगवान अरहनाथ का जीवन संयम, तपस्या और आत्मज्ञान का प्रतीक है। उनका आदर्श जीवन आज भी जैन अनुयायियों के लिए श्रद्धा और भक्ति का विषय है, और वे मोक्ष की राह में चलने की प्रेरणा देते हैं।
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