Vaasupujya

 

वासुपूज्य (Vasupujya) 

भगवान वासुपूज्य जैन धर्म के 12वें तीर्थंकर थे। उनका जन्म बिहार राज्य के भागलपुर नगर में हुआ था, जो प्राचीन काल में चंपापुर के नाम से प्रसिद्ध था। वे इक्ष्वाकु वंश के राजा वसुपाल और रानी जयावती के पुत्र थे। उनका जन्म फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को हुआ था। जन्म के समय चंपापुर में चारों ओर हर्ष और दिव्यता का वातावरण फैल गया था।

भगवान वासुपूज्य बचपन से ही अत्यंत शांत, बुद्धिमान और करुणामयी स्वभाव के थे। वे अन्य बच्चों की तरह खेलों में रुचि न लेकर ध्यान, ज्ञान और सत्कर्मों में रुचि रखते थे। उन्हें आत्मा, संसार और मोक्ष के विषय में जानने की तीव्र जिज्ञासा थी।

जब वे युवा हुए, तो उन्होंने कुछ समय तक राज्य की जिम्मेदारियाँ निभाईं। लेकिन जल्द ही उन्होंने संसार की नश्वरता को समझ लिया और वैराग्य की भावना से प्रेरित होकर 30 वर्ष की आयु में राज-पाठ त्याग दिया। उन्होंने दीक्षा लेकर तपस्वी जीवन को अपनाया और जंगलों में जाकर गहन तपस्या में लीन हो गए।

भगवान वासुपूज्य ने बारह वर्षों तक कठोर तप और ध्यान किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात उन्होंने धर्मचक्र प्रवर्तन किया और असंख्य जीवों को मोक्षमार्ग की ओर प्रेरित किया। उनके उपदेशों का मुख्य आधार पंचमहाव्रत—अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह—था।

एक विशेष बात यह है कि वासुपूज्य पहले तीर्थंकर थे जिन्होंने जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण चारों ही घटनाएं चंपापुर में प्राप्त कीं। यह नगर जैन धर्म के लिए एक अत्यंत पवित्र तीर्थ स्थल बन गया।

भगवान वासुपूज्य का प्रतीक चिन्ह महिष (भैंस) है। उनकी प्रतिमाओं में यह चिन्ह अंकित रहता है और जैन अनुयायी उन्हें अत्यंत श्रद्धा और भक्ति से पूजते हैं।

भगवान वासुपूज्य का जीवन त्याग, तपस्या और ज्ञान की मिसाल है। उनका आध्यात्मिक संदेश आज भी जैन धर्म में आस्था रखने वाले सभी अनुयायियों को संयमित, अहिंसक और सच्चा जीवन जीने की प्रेरणा देता है।

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