BHADRABAHU SWAMI

 

भद्रबाहु स्वामी 

भद्रबाहु स्वामी जैन धर्म के इतिहास में एक अत्यंत सम्माननीय और प्रसिद्ध आचार्य माने जाते हैं। वे भगवान महावीर के पश्चात जैन धर्म की ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाने वाले अंतिम श्रुतकेवली (जिसके पास सभी 14 पूर्वों का ज्ञान था) माने जाते हैं। उन्होंने न केवल धर्म की रक्षा की, बल्कि कठिन परिस्थितियों में भी जैन समुदाय का मार्गदर्शन किया।


प्रारंभिक जीवन:

भद्रबाहु स्वामी का जन्म एक विद्वान ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने बाल्यकाल से ही गहन धार्मिक शिक्षा प्राप्त की और जैन आगमों में अद्वितीय ज्ञान प्राप्त किया। वे दिगंबर परंपरा के महान आचार्य थे और अत्यंत तपस्वी, संयमी एवं तेजस्वी संत माने जाते हैं।


धर्म की सेवा:

भद्रबाहु स्वामी को जैन आगमों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त था। उन्होंने भगवान महावीर के उपदेशों को सुनकर उन्हें याद रखा और अपने शिष्यों को मौखिक परंपरा के माध्यम से संप्रेषित किया। वे 14 पूर्वों (जिनमें जैन धर्म का सम्पूर्ण ज्ञान समाहित था) के ज्ञाता माने जाते हैं, और इसलिए उन्हें अंतिम श्रुतकेवली कहा गया।


चंद्रगुप्त मौर्य और दक्षिण यात्रा:

जब मगध क्षेत्र (वर्तमान बिहार) में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ा, तब भद्रबाहु स्वामी ने अपने शिष्यों सहित दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान किया। उनके साथ मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य भी जैन दीक्षा लेकर तपस्या के लिए गए। इस यात्रा के दौरान उन्होंने कर्नाटक के श्रवणबेलगोला क्षेत्र में तप किया।

भद्रबाहु स्वामी ने श्रवणबेलगोला की चंद्रगिरी पर्वत पर कठोर तपस्या करते हुए शरीर का त्याग किया। कहा जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य ने भी वहाँ तपस्या करते हुए संलेखना व्रत लेकर अपने प्राण त्यागे।


धार्मिक विभाजन:

भद्रबाहु स्वामी की दक्षिण यात्रा के समय उनके पीछे जो शिष्य मगध में रह गए, उन्होंने बाद में जैन आगमों को लिपिबद्ध किया। यह परंपरा श्वेतांबर संप्रदाय के रूप में जानी गई, जबकि भद्रबाहु की परंपरा से जुड़े साधु दिगंबर संप्रदाय के अनुयायी बने। इस प्रकार, भद्रबाहु स्वामी की यात्रा के बाद जैन धर्म दो प्रमुख संप्रदायों में विभाजित हुआ – दिगंबर और श्वेतांबर


योगदान और विरासत:

भद्रबाहु स्वामी का जीवन संयम, त्याग और तप का आदर्श है। उन्होंने जैन धर्म की परंपरा को संकट के समय में भी सुरक्षित रखा। उनके द्वारा रचित ग्रंथों में कल्पसूत्र, नीति सूत्र, और अन्य धार्मिक सूत्रों का उल्लेख किया जाता है।


निष्कर्ष:

भद्रबाहु स्वामी न केवल एक महान तपस्वी थे, बल्कि उन्होंने जैन धर्म के संरक्षण और प्रचार में महान योगदान दिया। उनका जीवन सच्चे आचार्य, त्यागी और ज्ञानी संत का प्रतीक है। आज भी जैन अनुयायी उन्हें श्रद्धा से स्मरण करते हैं।

भद्रबाहु स्वामी – ज्ञान, तप और त्याग की अनुपम प्रतिमूर्ति।

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