CHOLA KINGDOM
चोल साम्राज्य
चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का एक अत्यंत शक्तिशाली और प्राचीन राजवंश था, जिसकी इतिहास में उपस्थिति लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से दर्ज मिलती है। परंतु इसका स्वर्णकाल 9वीं से 13वीं शताब्दी के बीच माना जाता है, जब यह तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व एशिया तक विस्तृत हो गया। चोलों की राजधानी तंजावुर (थंजावुर) थी, जो कला, संस्कृति और प्रशासन का प्रमुख केंद्र बना।
चोल साम्राज्य के महानतम शासकों में राजराजा प्रथम और उनके पुत्र राजेंद्र प्रथम का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। राजराजा प्रथम (985–1014 ई.) ने चोल शक्ति को चरम पर पहुँचाया और तंजावुर में विश्व प्रसिद्ध बृहदेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया। यह मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का अद्वितीय नमूना है और आज भी भारतीय स्थापत्य की अद्भुत उपलब्धि माना जाता है। राजेंद्र प्रथम ने साम्राज्य को समुद्री शक्ति के रूप में स्थापित किया और अपनी नौसेना के बल पर श्रीलंका, मालदीव तथा दक्षिण-पूर्व एशिया तक विजय प्राप्त की।
चोल प्रशासन अत्यंत संगठित और कुशल था। गाँवों से लेकर प्रांतों तक स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था थी। ‘उर’, ‘सभा’ और ‘नगरम्’ जैसी संस्थाओं ने गाँव स्तर पर लोकतांत्रिक सहभागिता सुनिश्चित की। कृषि, सिंचाई और जल प्रबंधन में चोलों ने अद्वितीय सुधार किए, जिनसे समृद्धि बढ़ी। चोलों ने समुद्री व्यापार को भी प्रोत्साहित किया, जिससे भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच सांस्कृतिक और व्यावसायिक संपर्क गहरे हुए।
कला और संस्कृति के क्षेत्र में चोलों का योगदान अपूर्व था। कांस्य मूर्तिकला, विशेषकर नटराज की मूर्ति, चोल काल की कला का सर्वोच्च उदाहरण है। मंदिरों में नृत्य, संगीत और साहित्य को संरक्षण मिला।
तेरहवीं शताब्दी के अंत में चोल साम्राज्य धीरे-धीरे कमजोर हुआ और पांड्यों तथा अन्य शक्तियों के उदय के साथ इसका पतन हुआ। फिर भी चोलों की सांस्कृतिक और प्रशासनिक विरासत आज भी तमिल सभ्यता की धरोहर के रूप में जीवित है।
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