RAJRAJA CHOLA
राजराजा चोल
राजराजा चोल प्रथम दक्षिण भारत के चोल साम्राज्य के सबसे महान और प्रभावशाली शासकों में से एक थे। उनका शासनकाल (985–1014 ई.) चोल साम्राज्य के स्वर्णयुग की शुरुआत माना जाता है। उनके नेतृत्व में चोल साम्राज्य ने प्रशासन, सैन्य शक्ति, कला और संस्कृति के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की, जिसके कारण उनका नाम इतिहास में अमर हो गया।
राजराजा चोल ने अपने साम्राज्य का विस्तार बड़े रणनीतिक ढंग से किया। उन्होंने पांड्यों, गंगों और श्रीलंका के बड़े हिस्सों पर विजय प्राप्त कर चोल शक्ति को अभूतपूर्व ऊँचाई पर पहुंचाया। उनकी नौसेना अत्यंत सुदृढ़ थी, जिसके बल पर उन्होंने समुद्री व्यापार और विदेशी संबंधों को सुरक्षित और समृद्ध बनाया। दक्षिण भारत में समुद्री शक्ति के रूप में चोल साम्राज्य की पहचान उसी काल में स्थापित हुई।
उनके शासनकाल का सबसे उज्ज्वल प्रतीक तंजावुर का प्रसिद्ध बृहदेश्वर मंदिर है, जिसे राजराजेश्वर मंदिर भी कहा जाता है। यह मंदिर द्रविड़ वास्तुकला की उत्कृष्ट कृति है। इसके निर्माण में विशाल ग्रेनाइट पत्थरों का प्रयोग और ऊँचा विमान (शिखर) भारतीय स्थापत्य का अद्भुत उदाहरण है। यह मंदिर आज यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है और राजराजा चोल की दूरदर्शिता का प्रमाण माना जाता है।
राजराजा चोल एक कुशल प्रशासक भी थे। उन्होंने भूमि कर का व्यवस्थित आकलन किया, राजस्व व्यवस्था को पारदर्शी बनाया और स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को मजबूत किया। उन्होंने कला, साहित्य, नृत्य और संगीत को संरक्षण दिया, जिससे तमिल संस्कृति का अद्भुत विकास हुआ। उनकी शासन शैली न्यायपूर्ण, संगठित और प्रगतिशील मानी जाती है।
राजराजा चोल की उपलब्धियों ने न केवल चोल साम्राज्य को महान बनाया, बल्कि दक्षिण भारत के इतिहास, संस्कृति और स्थापत्य को नई दिशा दी। आज भी उन्हें एक दूरदर्शी, शक्तिशाली और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध शासक के रूप में स्मरण किया जाता है।
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