DOCTRINE OF LAPSE

 डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स (Doctrine of Lapse) ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की एक महत्वपूर्ण राजनीतिक नीति थी, जिसे भारत में 19वीं शताब्दी के मध्य लागू किया गया। इस नीति को लागू करने का श्रेय तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी को दिया जाता है। इसका उद्देश्य भारतीय रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाकर उसका विस्तार करना था।

डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स के अनुसार यदि किसी भारतीय राजा की मृत्यु बिना जैविक पुरुष उत्तराधिकारी के हो जाती थी, तो उसकी रियासत ब्रिटिश शासन में मिला ली जाती थी। इस नीति के अंतर्गत दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता नहीं दी जाती थी, जबकि भारतीय परंपरा में दत्तक पुत्र को पूरा अधिकार प्राप्त होता था। इस प्रकार यह नीति भारतीय सामाजिक और धार्मिक परंपराओं के विरुद्ध थी।

इस नीति के माध्यम से अंग्रेजों ने कई प्रमुख रियासतों पर अधिकार कर लिया। सतारा (1848), संभलपुर, जैतपुर, बघाट, उदयपुर (छत्तीसगढ़), झांसी (1854) और नागपुर (1854) जैसी रियासतें इसी नीति के तहत अंग्रेजी शासन में मिला ली गईं। विशेष रूप से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को इस नीति से अत्यंत पीड़ा हुई, क्योंकि उनके दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से अंग्रेजों ने इनकार कर दिया था।

डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स के परिणामस्वरूप भारतीय शासकों और जनता में भारी असंतोष फैल गया। इसे अंग्रेजों की विस्तारवादी और अन्यायपूर्ण नीति के रूप में देखा गया। इस नीति ने भारतीयों के मन में अंग्रेजी शासन के प्रति आक्रश बढ़ाया, जो आगे चलकर 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण कारण बना।

अंततः 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने इस नीति को समाप्त कर दिया। डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स भारतीय इतिहास में अंग्रेजी औपनिवेशिक नीति का प्रतीक मानी जाती है, जिसने भारतीय रियासतों की स्वतंत्रता और परंपराओं को गहरी ठेस पहुँचाई।

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