TIRHUTA

 तिरहुता लिपि (मिथिलाक्षर) – परिचय

तिरहुता लिपि, जिसे मिथिलाक्षर भी कहा जाता है, मैथिली भाषा की पारंपरिक और ऐतिहासिक लिपि है। इसका विकास बिहार के मिथिला क्षेत्र में हुआ और यह कई शताब्दियों तक मैथिली लेखन का प्रमुख माध्यम रही। तिरहुता लिपि का उपयोग विशेष रूप से धार्मिक ग्रंथों, प्रशासनिक दस्तावेज़ों, ताम्रपत्रों और साहित्यिक रचनाओं में किया जाता था।

तिरहुता लिपि का इतिहास प्राचीन है। विद्वानों के अनुसार इसका विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ, और यह बंगाली तथा ओड़िया लिपियों से भी संबंधित मानी जाती है। मध्यकाल में तिरहुत क्षेत्र के राजाओं और विद्वानों ने इस लिपि को संरक्षण दिया। मैथिली साहित्य के महान कवि विद्यापति के काल में तिरहुता लिपि का व्यापक प्रयोग हुआ, जिससे इसे साहित्यिक प्रतिष्ठा मिली।

लिपिगत संरचना की दृष्टि से तिरहुता एक पूर्ण वर्णमाला वाली लिपि है। इसमें स्वर, व्यंजन, मात्राएँ और संयुक्त अक्षरों की स्पष्ट व्यवस्था है। इसके अक्षर गोलाकार और कलात्मक रूप लिए होते हैं, जो इसे अन्य भारतीय लिपियों से अलग पहचान देते हैं। लेखन शैली दाएँ से बाएँ नहीं, बल्कि बाएँ से दाएँ होती है, जैसे देवनागरी।

आधुनिक काल में तिरहुता लिपि का प्रयोग कम हो गया है और देवनागरी लिपि ने इसका स्थान ले लिया है। फिर भी, तिरहुता को पुनर्जीवित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। इसे यूनिकोड मानक में शामिल किया गया है, जिससे डिजिटल माध्यमों में इसके प्रयोग की संभावना बढ़ी है। कुछ शिक्षण संस्थान और सांस्कृतिक संगठन तिरहुता लिपि को सिखाने और प्रचारित करने का कार्य कर रहे हैं।

निष्कर्ष रूप में, तिरहुता लिपि केवल एक लेखन प्रणाली नहीं, बल्कि मिथिला की सांस्कृतिक पहचान और ऐतिहासिक विरासत का प्रतीक है। इसका संरक्षण और पुनरुत्थान मैथिली भाषा और संस्कृति को सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

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